Tuesday, January 17, 2012

Meditation Techniques To Conserve Energy Satsang


What is vipassana sadhana?

    Vipassana is a meditation practice propagated by the Buddha. It is useful for calming the mind and nerves and removing stress. In this era, most people are not interested in dharma and moksha. Of the four purusharthas, now only two are being fulfilled: artha and kama. When you go into artha and kama without the balancing effect of dharma and moksha, you will have mental tensions, worries, feelings of insecurity and fear. The mind will be troubled, full of passion, anger, remorse and regret. Practices like vipassana can be used to keep the mind calm and balanced.

Can meditation techniques help stabilise marital relationships?

    In all relationships there are feelings of insecurity and fear. The mind becomes dissipated, filled with anger, passion and guilt. One moment you are fighting and the next you are friendly again. In the evening you quarrel, and by morning you are friends. You say, "Sorry", and it is over, but all this creates tension. When you come to a really hot point, you have a shower, then you feel better. Similarly, at times of tension, you can do vipassana.

    Yoga means to calm the restless mind, and yoga also means the techniques which calm the mind. When the restless mind is quietened, then it is said that yoga has been achieved. So, yoga is a practice and an attainment too. It is very difficult to talk about it. I tell everyone that first it is necessary to sort out artha and kama. King Janaka was liberated though he lived amongst passions. He had immense properties and wealth, position and power. He had everything, but he was calm.

    There have been many such people who have lived a disciplined life and still followed the path of purushartha, self effort, while living in the world. They have done their duties, worked hard, but, in the midst of all, they were able to remain calm.

    I saw Gandhiji during my youth. Even in old age, he had surprising purushartha. He was always calm and quiet despite political upheavals, clashes and killings. So, a person who can keep himself calm in the midst of money and passion, is worthy of praise. In the Bhagavad Gita, Krishna says: That man who renounces all desires, gives up all ties, and becomes egoless and detached, achieves tranquillity of mind, even while performing action.

    Just as all rivers flow into the sea and lose their individual existence at that point, in the same way, let all of your desires and fantasies flow, then anchor them at the point where they cease flowing. That central point has to be located, then you move beyond vipassana or you will remain stuck there.

How can mauna or observing silence succeed in the grihastha environment?

    When you play a transistor for 24 hours will the battery go flat, or not? If you switch it off, the battery will last longer. That is the importance of mauna. In speaking, listening, thinking, walking, I am using up the battery's energy.

    Our battery is pranic energy. That pranic energy is used up quickly in talking, in worrying, in passions. This pranic energy that is spent on all of our activities should be conserved. Conservation of prana is the solution to our energy crisis. If you can stay silent for some time, then the mental energy is conserved.

Swami Vivekanand And Marriage Proposal


एक बार जब स्वामी विवेकानंद जी अमेरिका गए थे, एक महिला ने उनसे शादीकरने की इच्छा जताई। जब स्वामी विवेकानंद ने उस महिला से ये पुछा कि आप नेऐसा प्रश्न क्यूँ किया ?
उस महिला का उत्तर था कि वो उनकी बुद्धि से बहुत मोहित है और उसे एक ऐसे हीबुद्धिमान बच्चे कि कामनाहै।
इसीलिए उसने स्वामी से येप्रश्न कि क्या वो उससे शादी कर सकते है और उसे अपने जैसा एक बच्चा दे सकते हैं ?
उन्होंने महिला से कहा किचूँकि वो सिर्फ उनकी बुद्धि पर मोहित हैं इसलिए कोई समस्या नहीं है। उन्होंने कहा:
...
“ प्रिये महिला, मैं आपकी इच्छा को समझता हूँ। शादीकरना और इस दुनिया में एक बच्चा लाना और फिर जानना कि वो बुद्धिमान है कि नहीं, इसमें बहुत समय लगेगा, इसके अलावा ऐसा हो इसकी गारंटी भी नहीं है।
इसके बजाय, आपकी इच्छा को तुरंत पूरा करने हेतु मैंआपको एक सुझाव दे सकता हूँ।
आप मुझे अपने बच्चे के रूप में स्वीकार कर लें। इस प्रकार आप मेरी माँ बन जाएँगी और इस प्रकार मेरेजैसे बुद्धिमान बच्चा पाने की आपकी इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी।“

Thursday, December 22, 2011

हनुमान से सीखें, कैसे बनाया जाए संबंधों को मधुर....

जरा-सी गलतफहमी जीवनभर के संबंधों को खराब कर देती है। लोगों के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति में भी संबंध मधुर बने रहें, ऐसा प्रयास भी एक बड़ी सेवा है। कुछ लोग दूसरों के संबंधों में बिगाड़ लाने में ही रुचि रखते हैं। पीठ पीछे एक-दूसरे को एक-दूसरे की गलत जानकारी देकर यह काम आसानी से किया जाता है।


दूसरों के संबंध सुधारने या मधुर बनाए रखने में हमारी भूमिका कैसी हो, यह हनुमानजी से सीखा जा सकता है। सुंदरकांड के 13वें दोहे की 3-4 चौपाइयों में तुलसीदासजी ने सीता-हनुमानजी की बड़ी सुंदर बातचीत बताई है। पहली ही भेंट में दुखी सीताजी ने हनुमानजी के सामने श्रीरामजी की शिकायत रख दी थी।


श्रीरघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? आज ज्यादातर जीवन साथी आपस में यही शिकायत करते पाए जाते हैं कि व्यस्तता में हमें भुला दिया गया है।


बड़े दुख से सीताजी बोलीं - नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया। तब हनुमानजी ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने दावा कर दिया कि श्रीराम के मन में आप से ज्यादा प्रेम है। 


मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियं ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।। 


हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित कुशल हैं, परंतु आपके दुख से दुखी हैं। आप दुख न कीजिए। श्रीरामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है।


विचार की यह अति प्रस्तुति दोनों के बीच गलतफहमी दूर करने की भूमिका ही थी। हनुमत भक्तों को आज अशांत समाज में यही भूमिका निभानी होगी।

♥ Happiness ♥ Happiness ♥

♥ Happiness ♥ Happiness ♥
This is the greatest gift that i possess
I Thank the Lord Krishna that i've been blessed
With more than my share of Happiness...


For me this world is a wonderful place
I am the luckiest human in the human race
I've got no silver, & i've got no gold
But i've got happiness in my soul...


Happiness to me is an ocean wide
The sun sets bathing on a mountain side
A big good heaven full of stars above
When i am in the arms of my Lord I Love ♥ ♥

हमारे जीवन में माता पिता का मूल्य ......... एक प्रेरक प्रसंग

एक 80 साल का बूढा आदमी अपने घर में सोफे पर बैठा हुआ था, अपने 45 साल के उच्च शिक्षित बेटे के साथ. अचानक एक कौवा उनकी खिड़की पर आ बैठा.पिता ने अपने पुत्र से पूछा, "यह क्या है?"
बेटे ने कहा "यह एक कौवा है".
कुछ ही मिनटों के बाद, पिता ने अपने बेटे से दूसरी बार पूछा,"यह क्या है?"
बेटे ने कहा,"पिताजी, मैंने अभी आप से कहा है " यह एक कौवा है ".
थोड़ी देर के बाद, बूढ़े पिताजी ने फिर बेटे से तीसरी बार पूछा, यह क्या है? "
इस समय कुछ क्रोध के भाव उत्पन्न हुवे और उसने एक डांटने के अंदाज में अपने पिता से कहा. "यह एक कौवा है,
"कौवा. एक छोटे से अन्तराल के बाद पुनः चौथी बार पिताजी ने फिर से अपने बेटे से पूछा कि "यह क्या है ?"
इस बार बेटा अपने पिता पर चिल्लाया, " पिताजी तुम क्या चाहते हो जो बार बार एक ही सवाल दोहरा रहे हो? लगता है तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है?’’ हालांकि मैंने तुमसे कितनी बार कहा था 'यह एक कौवा है. आप कुछ करने में सक्षम नहीं, यह समझ में आया? "
थोड़ी देर बाद पिताजी अपने कमरे में चले गये और वापसी में अपने हाथ में एक जीर्ण शीर्ण डायरी लेके आये जिसको वह उस समय लिखते थे जब उनका यह बेटा पैदा हुआ था और उन्होंने उस डायरी का एक पृष्ट खोल कर अपने बेटे को पढने को दिया और जब बेटे ने इसे पढ़ा, निम्नलिखित शब्दों में लिखा गया
डायरी: -
" आज मैं मेरे तीन साल के छोटे बेटे के साथ आँगन में बैठा हुआ था और सामने पेड़ पर एक कौवा आकर बैठ गया मेरे बेटे ने उसको देख कर मुझ से पूछा पिताजी यह क्या है तो मैंने कहा बेटे यह कौवा है l उसने यह प्रश्न मेरे से कोई २३ बार किया और हर बार मुझे उसको जवाब देने में स्नेह का अनुभव होता था और मैं उसके मस्तक को चूम लेता था  उसके बार बार एक ही प्रश्न करने से मुझे खीज उत्पन्न नहीं हुई बल्कि ख़ुशी हुई  "और आज जब पिता ने अपने बेटे से एक ही प्रश्न सिर्फ 4 बार पूछा तो बेटा चिढ़ गया और नाराज होने लगा.
इसलिए………………………..
मेरे भाई बहनों यदि आपके माता पिता वृद्ध हो गए है तो उनको बोझ समझ कर घर से बाहर मत निकालो, उनको पूरा मान सम्मान दो जिसके वह हक़दार हैं ऐसा करके आप उन पर कोई एहसान नहीं कर रहे क्योंकि उन्होंने आपके जन्म से लेके आज तक आप पर अपने निस्वार्थ प्रेम की बारिश की है  उन्होंने आपको समाज में सम्मानित व्यक्ति बनाने और आपको अपने पैरों पे खड़ा करने के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया, किसी भी मुसीबत से टकरा गए, कभी किसी दुःख दर्द की परवाह नहीं की, खुद भूखे रह कर आपको खिलाया, तभी आज इस रूप में हैं  अतः मेरे भाई बहनों हकीकत को पहचानो और यह मत सोचो कि हमारे माँ बाप का व्यव्हार कैसा है, यह सोचो कि हमारा क्या फ़र्ज़ है.......... अपने फ़र्ज़ को पहचानो और भगवान् के लिए ऐसा कोई कार्य मत करो जिस से उनका दिल दुखे क्योंकि माँ बाप की सेवा से बढ़ कर संसार में कोई पूजा नहीं है, शायद इसी लिए किसी शायर ने कहा है :" चाहे लाख करो तुम पूजा तीरथ करो हज़ार, माँ बाप का दिल जो दुखाया तो सब है बेकार " माँ बाप के आशीर्वाद से बढ़ कर दुनिया में और कोई आशीर्वाद नहीं है  माँ बाप के आशीर्वाद को काटने कि हिम्मत तो भगवान् में भी नहीं है  हर धर्म, हर मज़हब में माँ बाप का स्थान सबसे ऊँचा है अतः भगवान् से प्रार्थना कीजिये कि आज से आप ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जिस से आपके घर में विराजमान मात पिता स्वरुप साक्षात् भगवान् भोले नाथ और माँ पार्वती का दिल दुखे  ॐ नमः शिवाय
इसको पढने के लिए समय निकालने के लिए धन्यवाद  

सुबह उठ इस मंत्र के साथ रखें भूमि पर पैर..न लगेंगी नाकामी की ठोकरें

सनातन धर्म जड़ में चेतन को खोजने की विलक्षण ज्ञान व शक्ति देता है। यही कारण है कि चाहे शिव हो या शालग्राम यानी हरि हो या हर, के निराकार रूप भी सांसारिक जीवन को सुख-समृद्ध बनाने वाले माने गए हैं। इसी कड़ी में भूमि को भी मातृशक्ति स्वरूप बताया गया है। 

मां के रूप में वंदनीय होने से भूमि पर पैर रखना भी दोष का कारण माना गया है। चूंकि हर मानव भूमि स्पर्श से अछूता नहीं रह सकता। यही कारण है कि शास्त्रों में भूमि स्पर्श दोष के शमन व मर्यादा पालन के लिये भूमि को जगतपालक विष्णु की अर्द्धांगिनी मानकर, उनसे एक विशेष मंत्र से क्षमा प्रार्थना जरूरी मानी गई है। 

व्यावहारिक दृष्टि से इसमें हर इंसान को अहंकार से परे रहकर जीने का छुपा संदेश है यानी विनम्र सरल शब्दों में जमीन से जुड़े रहकर ही असफलता व दु:ख की ठोकरों से बचना संभव बताया है। 

जानते हैं यह विशेष भूमि स्पर्श मंत्र। जिसे हर व्यक्ति को सुबह जागने के बाद जमीन पर पैर रखने से पहने जरूर स्मरण करना चाहिए - 

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तन मंडिते। 

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में।। 

सरल शब्दों में अर्थ है कि समुद्र रूपी वस्त्र पहनने वाली पर्वत रूपी स्तनों से मंडित भगवान विष्णु की पत्नी, हे माता पृथ्वी, आप मुझे पाद स्पर्श के लिए क्षमा करें।

Sunday, December 18, 2011

श्रीराम के चौदह निवास स्थान

श्रीराम के चौदह निवास स्थान

अपने वनवास काल में श्रीराम ने मुनिवर वाल्मीकि से अनुरोध किया, हे मुनिश्रेष्ठ, कृपया मार्गदर्शन कीजिए कि मैं सीता और लक्ष्मण सहित कुछ समय के लिए कहां निवास करूं? मुनिवर ने गदगद होकर उत्तर दिया:

पूछेहु मोहि कि रहौं कहं, मैं पूछत सकुचाउं।
जहं न होउ तहं देउ कहि, तुम्हहिं दिखावउं ठाउं।।

प्रभु, आपने पूछा कि मैं कहां रहूं? मैं आपसे संकोच करते हुए पूछता हूं कि पहले आप वह स्थान बता दीजिए, जहां आप नहीं हैं। (आप सर्वव्यापी हैं) तब मैं आपको आपका पूछा हुआ स्थान दिखा दूंगा।

श्रीराम मन ही मन हँसे। तब मुनिश्रेष्ठ ने ऐसे 14 स्थान बताए। उनका संबोधन प्रत्यक्ष में श्रीराम के लिए, किंतु परोक्ष में रामभक्तों के लिए है, जो अपने स्वभाव और वृत्ति के अनुसार अपने हृदय को यहां वर्णित ऐसे भक्ति भावों से परिपूर्ण करें कि श्रीराम सहज ही उनमें वास करें। उन स्थानों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है:

वाल्मीकि जी कहते हैं:

प्रथम स्थान :

जिन्ह के श्रवण समुद समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहि निरंतर होंइ न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुं गृह रूरे।।

जिन लोगों के कान समुद्र के समान हैं, जिन्हें आपकी मनोहारी कथा रूपी नदियां निरंतर भरती रहती हैं, परंतु ऐसी स्थिति कभी नहीं आती कि वह जल नहीं चाहिए। वे कभी पूरे नहीं भरते। उनके हृदय आपके निवास के लिए अच्छे स्थान हैं।

दूसरा स्थान :

लोचन चातक जिन्ह कर राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाखे।।
निदरहिं सरित, सिंधु, सर बारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।

जिनके चातक रूपी नेत्र विशाल सरोवरों, नदियों और समुद्र के अपार जल को नकार कर आपके दर्शन रूपी मेघ की बूंद भर जल पाकर ही तप्त होते हैं, उनके हृदय सुख देने वाले घर हैं। भक्त तुलसीदास इसका ज्वलंत उदाहरण हैं:

एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास।
राम रूप स्वाती जलद चातक तुलसीदास।।

तीसरा स्थान :

जसु तुम्हार मानस विमल, हंसनि जीहा जासु।
मुकताहल गुनगन चुनहिं, राम बसहु हिय तासु।।

जिसकी हंसिनी रूपी जीभ आपके यश रूपी निर्मल मानसरोवर में आपके गुण रूपी मोतियों को चुगती रहती है, आप उसके हृदय में वास कीजिए। यह कीर्तन भक्ति है।

चौथा स्थान :

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुवासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम, बसहु तिन्ह के मन माहीं।।

जिनकी नासिका सदा आदरपूर्वक आपकी प्रसादित सुंदर सुगंधि को सूंघती है। जो नित्य श्रीराम की पूजा करते हैं और केवल उन्हीं में उनका भरोसा है, जो श्रीराम के तीर्थ में पैदल चलकर जाते हैं, आप उनके मन में बसें।

पांचवां स्थान :

मंत्रराज नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहिं सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेंवाइ देहिं बहु दाना।।
सब करि मांगहि एक फलु, राम चरन रति होउ।
तिन्ह के मन मंदिर बसहु, सिय रघुनंदन दोउ।।

हे श्रीराम, जो नित्य मंत्रों के राजा राम का जाप और परिवार सहित आपका पूजन करते हैं, जो तर्पण व होम करते हैं, ब्राह्मणों को भोजन व खूब दान देते हैं और जो केवल आपके चरणों में प्रीति का वर मांगते हैं, उनके हृदय रूपी मंदिर में आप निवास करें।

छठा और सातवां स्थान :

काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न क्षोभ न राग न दोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।
कहहिं सत्य प्रिय वचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहिं छांडि़ गति दूसर नाहीं। राम बहसु तिन्ह के मन माहीं।।

जो काम, क्रोध, मद, मान, मोह, लोभ तथा भय से रहित हैं, जिन्हें न किसी से प्रेम है न वैर, जिन्होंने कपट, दिखावा और माया से छुटकारा पा लिया है, अर्थात जिनका मन निर्मल है, आप उनके हृदय को अपना निवास बनाएं। और, जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं, सोते, जागते आपकी शरण में हैं। आपको छोड़कर जिनकी दूसरी गति नहीं हैं। यथा :

सो अनन्य जाके अस मति न टरहिं हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर स्वामि रूप भगवंत।
आप उनके मन में वास करें।

आठवां और नौवां स्थान :

जननी सम जानहिं पर नारी। धनु पराव विष ते विष भारी।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होइ पर विपति बिसेखी।
जिन्हहिं राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।
स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह के बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात।।

जो परायी स्त्रियों को माता जैसा मानते हैं और पराये धन को भयंकर विष, जो दूसरों की उन्नति पर प्रसन्न और विपत्ति पर विशेष प्रकार से दुखी होते हैं, उनके मन आपके लिए शुभ भवन हैं।

और हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता तथा गुरु आदि सब केवल आप ही हैं, उनके मन मंदिर को आप अपना निवास बनाइए।

दसवां और ग्यारहवां स्थान :

अवगुन तजि सबके गुन गहहीं। बिप्र धेनुहित संकट सहहीं।।
नीति निपुण जिन्ह के जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मन नीका।।
गुन तुम्हार समझहिं निज दोसा। जेहि सब भांति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।

जो लोग 'संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार' की तर्ज पर सबके अवगुणों को छोड़ गुण ग्रहण करते हैं, ब्राह्माण और गौ के लिए कष्ट सह सकते हैं, नीति निपुणता जिनकी मर्यादा है, उनके अच्छे मन, हे राम! आपके लिए उत्तम घर हैं।

जो यह समझता है कि जो कुछ उसके द्वारा अच्छा होता है, वह आपकी कृपा से होता है और जो उससे बिगड़ता है, वह उसके अपने दोष से बिगड़ता है। जिसे आप पर भरोसा है और राम भक्त प्रिय लगते हैं, ऐसे सज्जन के हृदय में आप विराजें।

बारहवां और तेरहवां स्थान :

जाति पांति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहिं रहइ उर लाई। तेहि के हृदय रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहं तहं देखि धरे धनुबाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि के उर डेरा।।

जो जाति-पांति, धन, धर्म, बड़ाई, प्रिय कुटुंब तथा खुशहाल घर छोड़कर केवल आप में ही लौ लगाए रहता है, आप उसके हृदय में रहें।

और, जिनके लिए स्वर्ग, नरक व मोक्ष एक बराबर हैं और जो सब जगह आपको धनुष बाण धारण किए हुए ही देखते हैं और कर्म, वचन, तथा मन से आपके दास हैं, उनके हृदय में डेरा डालिए।

चौदहवां स्थान :

जाहि न चाहिअ कबहु कछु, तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन, सो राउर निज गेहु।।

जो कभी भी कुछ चाहे बिना आपसे स्वाभाविक प्रेम करता है, उसके मन में आप निरंतर वास कीजिए। वह आपका अपना ही घर है। यह निष्काम भक्त का वर्णन है, जो वात्सल्य भक्ति का सूचक है।यह निष्काम भक्त का वर्णन है, जो वात्सल्य भक्ति का सूचक है।