माखन चुराने आते हो, दिल ही चुराए जाते हो
करते हो अठखेलियाँ नित नए स्वाँग रचाते हो
यशोदा के लल्ला क्यों नित नित हमें सताते हो
करते हो माखन चोरी फिरभी ब्रिज राज कहाते हो
किससे करें शिकायत सुनती नहीं तुम्हारी मैया
भोली भाली बातों से क्या क्या तुम पाठ पढ़ाते हो
मन बेचैन हो जाता है जब नज़रों से दूर हो जाते हो
नैनों में चमक आ जाती है जब गैया चराके आते हो
ये "इश्क" का कैसा मंज़र है, जादू है उस मधुर धुन में
हिरनियाँ भी दौड़ी आती है जब बंसी तुम बजाते हो
Monday, October 31, 2011
ज्ञान का दीपक
काशी में गंगा के तट पर एक संत का आश्रम था। एक दिन उनके एक शिष्य ने पूछा, ‘गुरुवर, शिक्षा का निचोड़ क्या है?’ संत ने मुस्करा कर कहा, ‘एक दिन तुम खुद-ब-खुद जान जाओगे।’ बात आई और गई। कुछ समय बाद एक रात संत ने उस शिष्य से कहा, ‘वत्स, इस पुस्तक को मेरे कमरे में तख्त पर रख दो।’ शिष्य पुस्तक लेकर कमरे में गया लेकिन तत्काल लौट आया। वह डर से कांप रहा था। संत ने पूछा, ‘क्या हुआ? इतना डरे हुए क्यों हो?’ शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, कमरे में सांप है।’
संत ने कहा, ‘यह तुम्हारा भ्रम होगा। कमरे में सांप कहां से आएगा। तुम फिर जाओ और किसी मंत्र का जाप करना। सांप होगा तो भाग जाएगा।’ शिष्य दोबारा कमरे में गया। उसने मंत्र का जाप भी किया लेकिन सांप उसी स्थान पर था। वह डर कर फिर बाहर आ गया और संत से बोला, ‘सांप वहां से जा नहीं रहा है।’ संत ने कहा, ‘इस बार दीपक लेकर जाओ। सांप होगा तो दीपक के प्रकाश से भाग जाएगा।’
शिष्य इस बार दीपक लेकर गया तो देखा कि वहां सांप नहीं है। सांप की जगह एक रस्सी लटकी हुई थी। अंधकार के कारण उसे रस्सी का वह टुकड़ा सांप नजर आ रहा था। बाहर आकर शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, वहां सांप नहीं रस्सी का टुकड़ा है। अंधेरे में मैंने उसे सांप समझ लिया था।’ संत ने कहा, ‘वत्स, इसी को भ्रम कहते हैं। संसार गहन भ्रम जाल में जकड़ा हुआ है। ज्ञान के प्रकाश से ही इस भ्रम जाल को मिटाया जा सकता है लेकिन अज्ञानता के कारण हम बहुत सारे भ्रम जाल पाल लेते हैं और आंतरिक दीपक के अभाव में उसे दूर नहीं कर पाते। यह आंतरिक दीपक का प्रकाश संतों और ज्ञानियों के सत्संग से मिलता है। जब तक आंतरिक दीपक का प्रकाश प्रज्वलित नहीं होगा, लोगबाग भ्रमजाल से मुक्ति नहीं पा सकते।
Sunday, October 30, 2011
प्रीतम बोलो कब आवोगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
कब वीना की झंकारो पेय कोई अमर गीत बन छावोगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
यह प्यार भरा दिल रोता है थराते लम्बे साँसों में आसुँ की माल पिरोता है
अंधियारी सुनी कुंजों में रातों भर बात जू होता है हंसते इथ्रातें प्यार भरे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
सब प्यार जगत का झूठा है कुछ मान भाग्य अप ने पर था पर वो भी समझी फूटा है
ओह बिगड़ी बना ने वाले क्या तूं भी मुझ से रूठा है सब दूर करो झंझट मेरे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो कब आवोगे
भीगे भीगे नैना तेरी बात तका करते है सुनी सुनी रातों में हम तुम्हे पुकारा करते है
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
जोगन आँचल फेल्लां निकली जग लाज के बंधन तोड़ चली
कुल कान की आन मिटा निकली सारे श्रृंगार बखेर दिए
एक भगवा भेष बना निकली में तेरी मोहन तेरी हूँ
में तेरी प्यारे तेरी हूँ में जैसी हूँ अब तेरी हूँ में तेरी मोहन तेरी हूँ
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
जब शरद चंदर नभ मंडल को अप नि किरणों से धोता है
प्रेमी चकोर निज प्रीतम के दर्शन कर हर्षित होता है
इस शरद चांदनी रातों में यह संसार सुखियो हो सोता है
उस वक़्त मुझे नींद कहाँ दिल तड़फ तड़फ कर रोता है
श्री क्रिशन मुख चंदर बिना इस शरद चंदर सों काम नहीं
मेरे जीवन के सब दिन बीत चले पर आये मिले घन शाम नहीं
प्रीतम बोलो कब आओगे प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
कब वीना की झंकारो पेय कोई अमर गीत बन छावोगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
यह प्यार भरा दिल रोता है थराते लम्बे साँसों में आसुँ की माल पिरोता है
अंधियारी सुनी कुंजों में रातों भर बात जू होता है हंसते इथ्रातें प्यार भरे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
सब प्यार जगत का झूठा है कुछ मान भाग्य अप ने पर था पर वो भी समझी फूटा है
ओह बिगड़ी बना ने वाले क्या तूं भी मुझ से रूठा है सब दूर करो झंझट मेरे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो कब आवोगे
भीगे भीगे नैना तेरी बात तका करते है सुनी सुनी रातों में हम तुम्हे पुकारा करते है
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
जोगन आँचल फेल्लां निकली जग लाज के बंधन तोड़ चली
कुल कान की आन मिटा निकली सारे श्रृंगार बखेर दिए
एक भगवा भेष बना निकली में तेरी मोहन तेरी हूँ
में तेरी प्यारे तेरी हूँ में जैसी हूँ अब तेरी हूँ में तेरी मोहन तेरी हूँ
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
जब शरद चंदर नभ मंडल को अप नि किरणों से धोता है
प्रेमी चकोर निज प्रीतम के दर्शन कर हर्षित होता है
इस शरद चांदनी रातों में यह संसार सुखियो हो सोता है
उस वक़्त मुझे नींद कहाँ दिल तड़फ तड़फ कर रोता है
श्री क्रिशन मुख चंदर बिना इस शरद चंदर सों काम नहीं
मेरे जीवन के सब दिन बीत चले पर आये मिले घन शाम नहीं
प्रीतम बोलो कब आओगे प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
Saturday, October 29, 2011
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