जरा-सी गलतफहमी जीवनभर के संबंधों को खराब कर देती है। लोगों के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति में भी संबंध मधुर बने रहें, ऐसा प्रयास भी एक बड़ी सेवा है। कुछ लोग दूसरों के संबंधों में बिगाड़ लाने में ही रुचि रखते हैं। पीठ पीछे एक-दूसरे को एक-दूसरे की गलत जानकारी देकर यह काम आसानी से किया जाता है।
दूसरों के संबंध सुधारने या मधुर बनाए रखने में हमारी भूमिका कैसी हो, यह हनुमानजी से सीखा जा सकता है। सुंदरकांड के 13वें दोहे की 3-4 चौपाइयों में तुलसीदासजी ने सीता-हनुमानजी की बड़ी सुंदर बातचीत बताई है। पहली ही भेंट में दुखी सीताजी ने हनुमानजी के सामने श्रीरामजी की शिकायत रख दी थी।
श्रीरघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? आज ज्यादातर जीवन साथी आपस में यही शिकायत करते पाए जाते हैं कि व्यस्तता में हमें भुला दिया गया है।
बड़े दुख से सीताजी बोलीं - नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया। तब हनुमानजी ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने दावा कर दिया कि श्रीराम के मन में आप से ज्यादा प्रेम है।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियं ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।
हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित कुशल हैं, परंतु आपके दुख से दुखी हैं। आप दुख न कीजिए। श्रीरामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है।
विचार की यह अति प्रस्तुति दोनों के बीच गलतफहमी दूर करने की भूमिका ही थी। हनुमत भक्तों को आज अशांत समाज में यही भूमिका निभानी होगी।
Thursday, December 22, 2011
♥ Happiness ♥ Happiness ♥
♥ Happiness ♥ Happiness ♥
This is the greatest gift that i possess
I Thank the Lord Krishna that i've been blessed
With more than my share of Happiness...
For me this world is a wonderful place
I am the luckiest human in the human race
I've got no silver, & i've got no gold
But i've got happiness in my soul...
Happiness to me is an ocean wide
The sun sets bathing on a mountain side
A big good heaven full of stars above
When i am in the arms of my Lord I Love ♥ ♥
This is the greatest gift that i possess
I Thank the Lord Krishna that i've been blessed
With more than my share of Happiness...
For me this world is a wonderful place
I am the luckiest human in the human race
I've got no silver, & i've got no gold
But i've got happiness in my soul...
Happiness to me is an ocean wide
The sun sets bathing on a mountain side
A big good heaven full of stars above
When i am in the arms of my Lord I Love ♥ ♥
हमारे जीवन में माता पिता का मूल्य ......... एक प्रेरक प्रसंग
एक 80 साल का बूढा आदमी अपने घर में सोफे पर बैठा हुआ था, अपने 45 साल के उच्च शिक्षित बेटे के साथ. अचानक एक कौवा उनकी खिड़की पर आ बैठा.पिता ने अपने पुत्र से पूछा, "यह क्या है?"
बेटे ने कहा "यह एक कौवा है".
कुछ ही मिनटों के बाद, पिता ने अपने बेटे से दूसरी बार पूछा,"यह क्या है?"
बेटे ने कहा,"पिताजी, मैंने अभी आप से कहा है " यह एक कौवा है ".
थोड़ी देर के बाद, बूढ़े पिताजी ने फिर बेटे से तीसरी बार पूछा, यह क्या है? "
इस समय कुछ क्रोध के भाव उत्पन्न हुवे और उसने एक डांटने के अंदाज में अपने पिता से कहा. "यह एक कौवा है,
"कौवा. एक छोटे से अन्तराल के बाद पुनः चौथी बार पिताजी ने फिर से अपने बेटे से पूछा कि "यह क्या है ?"
इस बार बेटा अपने पिता पर चिल्लाया, " पिताजी तुम क्या चाहते हो जो बार बार एक ही सवाल दोहरा रहे हो? लगता है तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है?’’ हालांकि मैंने तुमसे कितनी बार कहा था 'यह एक कौवा है. आप कुछ करने में सक्षम नहीं, यह समझ में आया? "
थोड़ी देर बाद पिताजी अपने कमरे में चले गये और वापसी में अपने हाथ में एक जीर्ण शीर्ण डायरी लेके आये जिसको वह उस समय लिखते थे जब उनका यह बेटा पैदा हुआ था और उन्होंने उस डायरी का एक पृष्ट खोल कर अपने बेटे को पढने को दिया और जब बेटे ने इसे पढ़ा, निम्नलिखित शब्दों में लिखा गया
डायरी: -
" आज मैं मेरे तीन साल के छोटे बेटे के साथ आँगन में बैठा हुआ था और सामने पेड़ पर एक कौवा आकर बैठ गया मेरे बेटे ने उसको देख कर मुझ से पूछा पिताजी यह क्या है तो मैंने कहा बेटे यह कौवा है l उसने यह प्रश्न मेरे से कोई २३ बार किया और हर बार मुझे उसको जवाब देने में स्नेह का अनुभव होता था और मैं उसके मस्तक को चूम लेता था उसके बार बार एक ही प्रश्न करने से मुझे खीज उत्पन्न नहीं हुई बल्कि ख़ुशी हुई "और आज जब पिता ने अपने बेटे से एक ही प्रश्न सिर्फ 4 बार पूछा तो बेटा चिढ़ गया और नाराज होने लगा.
इसलिए………………………..
मेरे भाई बहनों यदि आपके माता पिता वृद्ध हो गए है तो उनको बोझ समझ कर घर से बाहर मत निकालो, उनको पूरा मान सम्मान दो जिसके वह हक़दार हैं ऐसा करके आप उन पर कोई एहसान नहीं कर रहे क्योंकि उन्होंने आपके जन्म से लेके आज तक आप पर अपने निस्वार्थ प्रेम की बारिश की है उन्होंने आपको समाज में सम्मानित व्यक्ति बनाने और आपको अपने पैरों पे खड़ा करने के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया, किसी भी मुसीबत से टकरा गए, कभी किसी दुःख दर्द की परवाह नहीं की, खुद भूखे रह कर आपको खिलाया, तभी आज इस रूप में हैं अतः मेरे भाई बहनों हकीकत को पहचानो और यह मत सोचो कि हमारे माँ बाप का व्यव्हार कैसा है, यह सोचो कि हमारा क्या फ़र्ज़ है.......... अपने फ़र्ज़ को पहचानो और भगवान् के लिए ऐसा कोई कार्य मत करो जिस से उनका दिल दुखे क्योंकि माँ बाप की सेवा से बढ़ कर संसार में कोई पूजा नहीं है, शायद इसी लिए किसी शायर ने कहा है :" चाहे लाख करो तुम पूजा तीरथ करो हज़ार, माँ बाप का दिल जो दुखाया तो सब है बेकार " माँ बाप के आशीर्वाद से बढ़ कर दुनिया में और कोई आशीर्वाद नहीं है माँ बाप के आशीर्वाद को काटने कि हिम्मत तो भगवान् में भी नहीं है हर धर्म, हर मज़हब में माँ बाप का स्थान सबसे ऊँचा है अतः भगवान् से प्रार्थना कीजिये कि आज से आप ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जिस से आपके घर में विराजमान मात पिता स्वरुप साक्षात् भगवान् भोले नाथ और माँ पार्वती का दिल दुखे ॐ नमः शिवाय
इसको पढने के लिए समय निकालने के लिए धन्यवाद
सुबह उठ इस मंत्र के साथ रखें भूमि पर पैर..न लगेंगी नाकामी की ठोकरें
सनातन धर्म जड़ में चेतन को खोजने की विलक्षण ज्ञान व शक्ति देता है। यही कारण है कि चाहे शिव हो या शालग्राम यानी हरि हो या हर, के निराकार रूप भी सांसारिक जीवन को सुख-समृद्ध बनाने वाले माने गए हैं। इसी कड़ी में भूमि को भी मातृशक्ति स्वरूप बताया गया है।
मां के रूप में वंदनीय होने से भूमि पर पैर रखना भी दोष का कारण माना गया है। चूंकि हर मानव भूमि स्पर्श से अछूता नहीं रह सकता। यही कारण है कि शास्त्रों में भूमि स्पर्श दोष के शमन व मर्यादा पालन के लिये भूमि को जगतपालक विष्णु की अर्द्धांगिनी मानकर, उनसे एक विशेष मंत्र से क्षमा प्रार्थना जरूरी मानी गई है।
व्यावहारिक दृष्टि से इसमें हर इंसान को अहंकार से परे रहकर जीने का छुपा संदेश है यानी विनम्र सरल शब्दों में जमीन से जुड़े रहकर ही असफलता व दु:ख की ठोकरों से बचना संभव बताया है।
जानते हैं यह विशेष भूमि स्पर्श मंत्र। जिसे हर व्यक्ति को सुबह जागने के बाद जमीन पर पैर रखने से पहने जरूर स्मरण करना चाहिए -
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तन मंडिते।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में।।
सरल शब्दों में अर्थ है कि समुद्र रूपी वस्त्र पहनने वाली पर्वत रूपी स्तनों से मंडित भगवान विष्णु की पत्नी, हे माता पृथ्वी, आप मुझे पाद स्पर्श के लिए क्षमा करें।
मां के रूप में वंदनीय होने से भूमि पर पैर रखना भी दोष का कारण माना गया है। चूंकि हर मानव भूमि स्पर्श से अछूता नहीं रह सकता। यही कारण है कि शास्त्रों में भूमि स्पर्श दोष के शमन व मर्यादा पालन के लिये भूमि को जगतपालक विष्णु की अर्द्धांगिनी मानकर, उनसे एक विशेष मंत्र से क्षमा प्रार्थना जरूरी मानी गई है।
व्यावहारिक दृष्टि से इसमें हर इंसान को अहंकार से परे रहकर जीने का छुपा संदेश है यानी विनम्र सरल शब्दों में जमीन से जुड़े रहकर ही असफलता व दु:ख की ठोकरों से बचना संभव बताया है।
जानते हैं यह विशेष भूमि स्पर्श मंत्र। जिसे हर व्यक्ति को सुबह जागने के बाद जमीन पर पैर रखने से पहने जरूर स्मरण करना चाहिए -
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तन मंडिते।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व में।।
सरल शब्दों में अर्थ है कि समुद्र रूपी वस्त्र पहनने वाली पर्वत रूपी स्तनों से मंडित भगवान विष्णु की पत्नी, हे माता पृथ्वी, आप मुझे पाद स्पर्श के लिए क्षमा करें।
Sunday, December 18, 2011
श्रीराम के चौदह निवास स्थान
श्रीराम के चौदह निवास स्थान
अपने वनवास काल में श्रीराम ने मुनिवर वाल्मीकि से अनुरोध किया, हे मुनिश्रेष्ठ, कृपया मार्गदर्शन कीजिए कि मैं सीता और लक्ष्मण सहित कुछ समय के लिए कहां निवास करूं? मुनिवर ने गदगद होकर उत्तर दिया:
पूछेहु मोहि कि रहौं कहं, मैं पूछत सकुचाउं।
जहं न होउ तहं देउ कहि, तुम्हहिं दिखावउं ठाउं।।
प्रभु, आपने पूछा कि मैं कहां रहूं? मैं आपसे संकोच करते हुए पूछता हूं कि पहले आप वह स्थान बता दीजिए, जहां आप नहीं हैं। (आप सर्वव्यापी हैं) तब मैं आपको आपका पूछा हुआ स्थान दिखा दूंगा।
श्रीराम मन ही मन हँसे। तब मुनिश्रेष्ठ ने ऐसे 14 स्थान बताए। उनका संबोधन प्रत्यक्ष में श्रीराम के लिए, किंतु परोक्ष में रामभक्तों के लिए है, जो अपने स्वभाव और वृत्ति के अनुसार अपने हृदय को यहां वर्णित ऐसे भक्ति भावों से परिपूर्ण करें कि श्रीराम सहज ही उनमें वास करें। उन स्थानों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है:
वाल्मीकि जी कहते हैं:
प्रथम स्थान :
जिन्ह के श्रवण समुद समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहि निरंतर होंइ न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुं गृह रूरे।।
जिन लोगों के कान समुद्र के समान हैं, जिन्हें आपकी मनोहारी कथा रूपी नदियां निरंतर भरती रहती हैं, परंतु ऐसी स्थिति कभी नहीं आती कि वह जल नहीं चाहिए। वे कभी पूरे नहीं भरते। उनके हृदय आपके निवास के लिए अच्छे स्थान हैं।
दूसरा स्थान :
लोचन चातक जिन्ह कर राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाखे।।
निदरहिं सरित, सिंधु, सर बारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
जिनके चातक रूपी नेत्र विशाल सरोवरों, नदियों और समुद्र के अपार जल को नकार कर आपके दर्शन रूपी मेघ की बूंद भर जल पाकर ही तप्त होते हैं, उनके हृदय सुख देने वाले घर हैं। भक्त तुलसीदास इसका ज्वलंत उदाहरण हैं:
एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास।
राम रूप स्वाती जलद चातक तुलसीदास।।
तीसरा स्थान :
जसु तुम्हार मानस विमल, हंसनि जीहा जासु।
मुकताहल गुनगन चुनहिं, राम बसहु हिय तासु।।
जिसकी हंसिनी रूपी जीभ आपके यश रूपी निर्मल मानसरोवर में आपके गुण रूपी मोतियों को चुगती रहती है, आप उसके हृदय में वास कीजिए। यह कीर्तन भक्ति है।
चौथा स्थान :
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुवासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम, बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जिनकी नासिका सदा आदरपूर्वक आपकी प्रसादित सुंदर सुगंधि को सूंघती है। जो नित्य श्रीराम की पूजा करते हैं और केवल उन्हीं में उनका भरोसा है, जो श्रीराम के तीर्थ में पैदल चलकर जाते हैं, आप उनके मन में बसें।
पांचवां स्थान :
मंत्रराज नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहिं सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेंवाइ देहिं बहु दाना।।
सब करि मांगहि एक फलु, राम चरन रति होउ।
तिन्ह के मन मंदिर बसहु, सिय रघुनंदन दोउ।।
हे श्रीराम, जो नित्य मंत्रों के राजा राम का जाप और परिवार सहित आपका पूजन करते हैं, जो तर्पण व होम करते हैं, ब्राह्मणों को भोजन व खूब दान देते हैं और जो केवल आपके चरणों में प्रीति का वर मांगते हैं, उनके हृदय रूपी मंदिर में आप निवास करें।
छठा और सातवां स्थान :
काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न क्षोभ न राग न दोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।
कहहिं सत्य प्रिय वचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहिं छांडि़ गति दूसर नाहीं। राम बहसु तिन्ह के मन माहीं।।
जो काम, क्रोध, मद, मान, मोह, लोभ तथा भय से रहित हैं, जिन्हें न किसी से प्रेम है न वैर, जिन्होंने कपट, दिखावा और माया से छुटकारा पा लिया है, अर्थात जिनका मन निर्मल है, आप उनके हृदय को अपना निवास बनाएं। और, जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं, सोते, जागते आपकी शरण में हैं। आपको छोड़कर जिनकी दूसरी गति नहीं हैं। यथा :
सो अनन्य जाके अस मति न टरहिं हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर स्वामि रूप भगवंत।
आप उनके मन में वास करें।
आठवां और नौवां स्थान :
जननी सम जानहिं पर नारी। धनु पराव विष ते विष भारी।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होइ पर विपति बिसेखी।
जिन्हहिं राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।
स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह के बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात।।
जो परायी स्त्रियों को माता जैसा मानते हैं और पराये धन को भयंकर विष, जो दूसरों की उन्नति पर प्रसन्न और विपत्ति पर विशेष प्रकार से दुखी होते हैं, उनके मन आपके लिए शुभ भवन हैं।
और हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता तथा गुरु आदि सब केवल आप ही हैं, उनके मन मंदिर को आप अपना निवास बनाइए।
दसवां और ग्यारहवां स्थान :
अवगुन तजि सबके गुन गहहीं। बिप्र धेनुहित संकट सहहीं।।
नीति निपुण जिन्ह के जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मन नीका।।
गुन तुम्हार समझहिं निज दोसा। जेहि सब भांति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जो लोग 'संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार' की तर्ज पर सबके अवगुणों को छोड़ गुण ग्रहण करते हैं, ब्राह्माण और गौ के लिए कष्ट सह सकते हैं, नीति निपुणता जिनकी मर्यादा है, उनके अच्छे मन, हे राम! आपके लिए उत्तम घर हैं।
जो यह समझता है कि जो कुछ उसके द्वारा अच्छा होता है, वह आपकी कृपा से होता है और जो उससे बिगड़ता है, वह उसके अपने दोष से बिगड़ता है। जिसे आप पर भरोसा है और राम भक्त प्रिय लगते हैं, ऐसे सज्जन के हृदय में आप विराजें।
बारहवां और तेरहवां स्थान :
जाति पांति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहिं रहइ उर लाई। तेहि के हृदय रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहं तहं देखि धरे धनुबाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि के उर डेरा।।
जो जाति-पांति, धन, धर्म, बड़ाई, प्रिय कुटुंब तथा खुशहाल घर छोड़कर केवल आप में ही लौ लगाए रहता है, आप उसके हृदय में रहें।
और, जिनके लिए स्वर्ग, नरक व मोक्ष एक बराबर हैं और जो सब जगह आपको धनुष बाण धारण किए हुए ही देखते हैं और कर्म, वचन, तथा मन से आपके दास हैं, उनके हृदय में डेरा डालिए।
चौदहवां स्थान :
जाहि न चाहिअ कबहु कछु, तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन, सो राउर निज गेहु।।
जो कभी भी कुछ चाहे बिना आपसे स्वाभाविक प्रेम करता है, उसके मन में आप निरंतर वास कीजिए। वह आपका अपना ही घर है। यह निष्काम भक्त का वर्णन है, जो वात्सल्य भक्ति का सूचक है।यह निष्काम भक्त का वर्णन है, जो वात्सल्य भक्ति का सूचक है।
अपने वनवास काल में श्रीराम ने मुनिवर वाल्मीकि से अनुरोध किया, हे मुनिश्रेष्ठ, कृपया मार्गदर्शन कीजिए कि मैं सीता और लक्ष्मण सहित कुछ समय के लिए कहां निवास करूं? मुनिवर ने गदगद होकर उत्तर दिया:
पूछेहु मोहि कि रहौं कहं, मैं पूछत सकुचाउं।
जहं न होउ तहं देउ कहि, तुम्हहिं दिखावउं ठाउं।।
प्रभु, आपने पूछा कि मैं कहां रहूं? मैं आपसे संकोच करते हुए पूछता हूं कि पहले आप वह स्थान बता दीजिए, जहां आप नहीं हैं। (आप सर्वव्यापी हैं) तब मैं आपको आपका पूछा हुआ स्थान दिखा दूंगा।
श्रीराम मन ही मन हँसे। तब मुनिश्रेष्ठ ने ऐसे 14 स्थान बताए। उनका संबोधन प्रत्यक्ष में श्रीराम के लिए, किंतु परोक्ष में रामभक्तों के लिए है, जो अपने स्वभाव और वृत्ति के अनुसार अपने हृदय को यहां वर्णित ऐसे भक्ति भावों से परिपूर्ण करें कि श्रीराम सहज ही उनमें वास करें। उन स्थानों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है:
वाल्मीकि जी कहते हैं:
प्रथम स्थान :
जिन्ह के श्रवण समुद समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहि निरंतर होंइ न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुं गृह रूरे।।
जिन लोगों के कान समुद्र के समान हैं, जिन्हें आपकी मनोहारी कथा रूपी नदियां निरंतर भरती रहती हैं, परंतु ऐसी स्थिति कभी नहीं आती कि वह जल नहीं चाहिए। वे कभी पूरे नहीं भरते। उनके हृदय आपके निवास के लिए अच्छे स्थान हैं।
दूसरा स्थान :
लोचन चातक जिन्ह कर राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाखे।।
निदरहिं सरित, सिंधु, सर बारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
जिनके चातक रूपी नेत्र विशाल सरोवरों, नदियों और समुद्र के अपार जल को नकार कर आपके दर्शन रूपी मेघ की बूंद भर जल पाकर ही तप्त होते हैं, उनके हृदय सुख देने वाले घर हैं। भक्त तुलसीदास इसका ज्वलंत उदाहरण हैं:
एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास।
राम रूप स्वाती जलद चातक तुलसीदास।।
तीसरा स्थान :
जसु तुम्हार मानस विमल, हंसनि जीहा जासु।
मुकताहल गुनगन चुनहिं, राम बसहु हिय तासु।।
जिसकी हंसिनी रूपी जीभ आपके यश रूपी निर्मल मानसरोवर में आपके गुण रूपी मोतियों को चुगती रहती है, आप उसके हृदय में वास कीजिए। यह कीर्तन भक्ति है।
चौथा स्थान :
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुवासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम, बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जिनकी नासिका सदा आदरपूर्वक आपकी प्रसादित सुंदर सुगंधि को सूंघती है। जो नित्य श्रीराम की पूजा करते हैं और केवल उन्हीं में उनका भरोसा है, जो श्रीराम के तीर्थ में पैदल चलकर जाते हैं, आप उनके मन में बसें।
पांचवां स्थान :
मंत्रराज नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहिं सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेंवाइ देहिं बहु दाना।।
सब करि मांगहि एक फलु, राम चरन रति होउ।
तिन्ह के मन मंदिर बसहु, सिय रघुनंदन दोउ।।
हे श्रीराम, जो नित्य मंत्रों के राजा राम का जाप और परिवार सहित आपका पूजन करते हैं, जो तर्पण व होम करते हैं, ब्राह्मणों को भोजन व खूब दान देते हैं और जो केवल आपके चरणों में प्रीति का वर मांगते हैं, उनके हृदय रूपी मंदिर में आप निवास करें।
छठा और सातवां स्थान :
काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न क्षोभ न राग न दोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।
कहहिं सत्य प्रिय वचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहिं छांडि़ गति दूसर नाहीं। राम बहसु तिन्ह के मन माहीं।।
जो काम, क्रोध, मद, मान, मोह, लोभ तथा भय से रहित हैं, जिन्हें न किसी से प्रेम है न वैर, जिन्होंने कपट, दिखावा और माया से छुटकारा पा लिया है, अर्थात जिनका मन निर्मल है, आप उनके हृदय को अपना निवास बनाएं। और, जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं, सोते, जागते आपकी शरण में हैं। आपको छोड़कर जिनकी दूसरी गति नहीं हैं। यथा :
सो अनन्य जाके अस मति न टरहिं हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर स्वामि रूप भगवंत।
आप उनके मन में वास करें।
आठवां और नौवां स्थान :
जननी सम जानहिं पर नारी। धनु पराव विष ते विष भारी।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होइ पर विपति बिसेखी।
जिन्हहिं राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।
स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह के बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात।।
जो परायी स्त्रियों को माता जैसा मानते हैं और पराये धन को भयंकर विष, जो दूसरों की उन्नति पर प्रसन्न और विपत्ति पर विशेष प्रकार से दुखी होते हैं, उनके मन आपके लिए शुभ भवन हैं।
और हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता तथा गुरु आदि सब केवल आप ही हैं, उनके मन मंदिर को आप अपना निवास बनाइए।
दसवां और ग्यारहवां स्थान :
अवगुन तजि सबके गुन गहहीं। बिप्र धेनुहित संकट सहहीं।।
नीति निपुण जिन्ह के जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मन नीका।।
गुन तुम्हार समझहिं निज दोसा। जेहि सब भांति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जो लोग 'संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार' की तर्ज पर सबके अवगुणों को छोड़ गुण ग्रहण करते हैं, ब्राह्माण और गौ के लिए कष्ट सह सकते हैं, नीति निपुणता जिनकी मर्यादा है, उनके अच्छे मन, हे राम! आपके लिए उत्तम घर हैं।
जो यह समझता है कि जो कुछ उसके द्वारा अच्छा होता है, वह आपकी कृपा से होता है और जो उससे बिगड़ता है, वह उसके अपने दोष से बिगड़ता है। जिसे आप पर भरोसा है और राम भक्त प्रिय लगते हैं, ऐसे सज्जन के हृदय में आप विराजें।
बारहवां और तेरहवां स्थान :
जाति पांति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहिं रहइ उर लाई। तेहि के हृदय रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहं तहं देखि धरे धनुबाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि के उर डेरा।।
जो जाति-पांति, धन, धर्म, बड़ाई, प्रिय कुटुंब तथा खुशहाल घर छोड़कर केवल आप में ही लौ लगाए रहता है, आप उसके हृदय में रहें।
और, जिनके लिए स्वर्ग, नरक व मोक्ष एक बराबर हैं और जो सब जगह आपको धनुष बाण धारण किए हुए ही देखते हैं और कर्म, वचन, तथा मन से आपके दास हैं, उनके हृदय में डेरा डालिए।
चौदहवां स्थान :
जाहि न चाहिअ कबहु कछु, तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन, सो राउर निज गेहु।।
जो कभी भी कुछ चाहे बिना आपसे स्वाभाविक प्रेम करता है, उसके मन में आप निरंतर वास कीजिए। वह आपका अपना ही घर है। यह निष्काम भक्त का वर्णन है, जो वात्सल्य भक्ति का सूचक है।यह निष्काम भक्त का वर्णन है, जो वात्सल्य भक्ति का सूचक है।
Friday, December 16, 2011
जो तुम तोड़ो पिया मैं नहीं तोडू
कृष्ण
जो तुम तोड़ो पिया मैं नहीं तोडू
तोरी प्रीत तोड़ी कृष्ण कौन संग जोडू
तुम भये तरुवर मैं भई पंखिया
तुम भये सरोवर मई तेरी मंछिया
तुम भये गिरिवर मैं भई कर
तुम भये चंदा हम भई चकोरा
तुम भये मोती प्रभु हम भई धागा
तुम भये सोना हम भई खागा
मीरा कहे प्रभु ब्रिज के वासी
तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी
खूबसूरत है वो मुस्कान
खूबसूरत है वो मुस्कान जो "श्री कृष्ण" को देख कर खिल जाए
खूबसूरत है वो दिल जो "श्री कृष्ण" के प्यार के रंग मे रंग जाए
खूबसूरत है वो एहसास जिस मे "श्री कृष्ण" के प्यार की मिठास हो
खूबसूरत है वो आँखे जिनमे "श्री कृष्ण" के खूबसूरत ख्वाब समा जाएँ
खूबसूरत है वो आसूँ जो "श्री कृष्ण" के ग़म मे बह जाएँ
.........................................................
"श्री कृष्ण" "श्री कृष्ण" "श्री कृष्ण" "श्री कृष्ण" "श्री कृष्ण" "श्री कृष्ण"
+++++++++++++++++++++++++++++++++++++
तू ही मेरा सहारा मुरलीवाले
तेरे बिन मेरा न गुजारा मुरलीवाले
तेरी याद मोहे पल पल सतावे
हर पल चैन करार छीन मुझसे ले जावे
अश्रु जल आँखों में ले आवे
तू ही मेरे हर पल साथ निभावे
तू ही मेरा सखा,तू ही प्राण प्रीतम
तेरी ही राह यह आँखें कबसे निहारे
जनम जनम से तू ही साथ निभावे
अब तो आ जा मुरलीवाले
God's Rosebud
A new minister was walking with an older, more seasoned minister in the garden one day.
Feeling a bit insecure about what God had for him to do, he was asking the older preacher for some advice.
The older preacher walked up to a rosebush and handed the young preacher a rosebud and told him to open it without tearing off any petals.
The young preacher looked in disbelief at the older preacher and was trying to figure out what a rosebud could possibly have to do with his wanting to know the will of God for his life and ministry.
But because of his great respect for the older preacher, he proceeded to try to unfold the rose, while keeping every petal intact.
It wasn't long before he realized how impossible this was to do.
Noticing the younger preacher's inability to unfold the rosebud without tearing it, the older preacher began to recite the following poem...
"It is only a tiny rosebud,
A flower of God's design;
But I cannot unfold the petals
With these clumsy hands of mine."
"The secret of unfolding flowers
Is not known to such as I.
GOD opens this flower so easily,
But in my hands they die."
"If I cannot unfold a rosebud,
This flower of God's design,
Then how can I have the wisdom
To unfold this life of mine?"
"So I'll trust in God for leading
Each moment of my day.
I will look to God for guidance
In each step along the way."
"The path that lies before me,
Only my Lord and Savior knows.
I'll trust God to unfold the moments,
Just as He unfolds the rose."
►कान्हा जी हमे अपनी पायल नही तो
►कान्हा जी हमे अपनी पायल नही तो
►पायल का एक घुँघरू ही बना लो
►और उसे अपने चरणकमलों से लगा लो
►कान्हा जी हमे अपने कंगन नही तो
►...कंगन में जड़ा हुआ एक पत्थर ही बना दो
►और उसे अपनी प्यारी कलाईयों में सजा लो
►कान्हा जी हमे अपनी मुरली नही तो
►अपनी मुरली की कोई धुन ही बना लो
►और उसे अपने अधरों से इक बार तो बजा लो
►कान्हा जी और कुछ नही तो अपने
►चरणों की धूल ही बना लो
►वो चरणधूल फिर ब्रज में उड़ा दो
►सच कहूँ मेरे कान्हा जी देखना फिर
►चरणों की धूलकण बन कैसे इतराऊँ मै....
Mal Maas 2012
Mal Maas, also known as Adhik Maas, is the extra month added to a Hindu lunar calendar once in 32 months to make the lunar calendar similar to the solar calendar. Mal Maas 2012 is from August 18 to September 16. Astronomically Mal Maas is known as Intercalary month.
The month is known as Mal Maas (waste month) as the sun did not enter any rashis during Mal Maas and people considered it inauspicious and hence referred to it as waste.
Legend has it that Mal Maas did not like it being referred as waste and complained to Vishnu, who renamed the month as Purushottam Maas. The Mal Maas is thus dedicated to Sri Krishna and is considered ideal for all sort of Spiritual activities.
Why Mal Maas?
The Hindu lunar calendar, which has been around for a very long time, even long before the solar calendar, is based on the moon’s rotation around the Earth. The lunar month corresponds to one complete rotation of Moon around the Earth.
Since this period of rotation of moon around the earth varies, the duration of lunar month also varies. On average, the lunar month has about 29 1⁄2 days. In addition to moon’s rotation around the earth, the lunar year is based on earth’s rotation around the Sun. In general, the lunar year has twelve lunar months of approximately 354 days, thus making it shorter by about 11 days than the solar year. However, the lunar calendar accounts for this difference by adding an extra lunar month about once every 21⁄2 years. This extra lunar month is known as the Mal Maas in Hindu Tradition.
How is Mal Maas Calculated?
Sun remains in a zodiac sign for approximately one month, the Moon travels through all twelve zodiac signs in about 27 1⁄2 days. As a result, on average, once about every two and half years, the entry of the Moon in the same zodiac sign occurs twice while the Sun remains in the same sign.
In other words, when the Sun is traveling through the same zodiac sign, the month during which two new moons occur, happens once about every 2 1⁄2 years. The lunar month corresponding to the period between these two new moons is treated as the extra month or the Mal Maas.
Source – Based on an article written by Sanjiv R Malkan
Thursday, December 15, 2011
सुभाषित रत्न
....................................सुभाषित रत्न .......................
सुभाषितमयैर्द्रव्यैः सङ्ग्रहं न करोति यः !
सोऽपि प्रस्तावयज्ञेषु कां प्रदास्यति दक्षिणाम् !!
सुभाषित कथन रूपी सम्पदा का जो संग्रह नहीं करता वह "प्रसंगविशेष" की चर्चा के यज्ञ में भला क्या दक्षिणा देगा ?
समुचित वार्तालाप में भाग लेना एक यज्ञ है ,एवं उस यज्ञ में हम दूसरों के प्रति सुभाषित शब्दों की आहुति दे सकते हैं ! ऐसे अवसर पर एक व्यक्ति से मीठे बोलों की अपेक्षा की जाती है,
किंतु जिसने "सुभाषण" की संपदा न अर्जित की हो यानी अपना स्वभाव तदनुरूप न ढाला हो वह ऐसे अवसरों पर औरों को क्या दे सकता है ?
आत्मीय स्वजनों आशय मात्र है की "मधुर भाषा सभ्य समाज की परिचायक" है !
"बात ही हांथी पाईए बात ही हाँथी पाँव "
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय !
औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय !!
Paar Laga De Mori Naiyya-Bhajan
तू ही बन जा ..
तू ही बन जा मेरा मांझी पार लगा दे मेरी नैया .
हे नटनागर कृष्ण कन्हैया पार लगा दे मेरी नैया ..
इस जीवन के सागर में हर क्षन लगता है डर मुझ्को .
क्या भला है क्या बुरा है तू ही बता दे मुझ्को .
हे नटनागर कृष्ण कन्हैया पार लगा दे मेरी नैया ..
क्या तेरा और क्या मेरा है सब कुछ तो बस सपना है .
इस जीवन के मोहजाल में सबने सोचा अपना है .
हे नटनागर कृष्ण कन्हैया पार लगा दे मेरी नैया .
अपनी औकात कभी भी किसी को भूलनी नहीं चाहिए
एक छोटी सी कहानी आप लोगो के समक्ष रखना चाहूँगा!
एक छोटे से गाँव में एक गरीब इमानदार ब्रह्मण था! नौकरी के लिए वोह एक सेठ के पास जाता है, सेठ उसकी माली हालत देखके, उसपे तरस खाके नौकरी पर रख लेता है!
वोह ब्रह्मण इमानदारी से अपना काम शुरू कर देता है! पहले तोह उसे साफ़ सफाई का काम दिया गया था, जिसे उसने बहुत ही अच्छे से निभाया! वोह दिन भर साफ़ सफाई करता और शाम को सोने से पहले अपने कमरे में रखे एक संदूक को एक बार जरुर खोल के देखता! दूकान के बाकी कर्मचारी उसकी इस हरकत को देखते और परेशान रहते की आखिर इसके इस संदूक में ऐसा क्या है जो यह हर दिन खोल के देखता है और बिना कुछ निकाले वापस बंद करके रख देता है?
फिर किताबी ज्ञान देख के उसे सेठ दूकान के हिसाब - किताब का काम भी दे दिया जाता है! जब उसको यह काम मिलता है तोह वोह बहुत बखूबी से सेठ को सूचित करता है की उनका कारोबार पिछले दो सालो से बहुत ही लाभ में जा रहा है लेकिन सेठ को उनके मुनीम द्वारा यह सूचित किया गया था की उनके कपडे के कारोबार में कोई जाएदा लाभ नहीं हो रहा! सेठ अपने पिछले मुनीम को बुला के पूछता है की उसने क्यों उसको गलत जानकारी दी? मुनीम घप्लेबाज़ था इसीलिए उसके पास इस प्रशन का कोई उत्तर नहीं था!
सेठ उसे नौकरी से निकाल देने का फैश्ला करता है, लेकिन ब्रह्मण के निवेदन पर उसे दुबारा नौकरी पर रख लेता है! लेकिन ब्रह्मण का वेतन उस मुनीम से जाएदा करके मुनीम को उस गरीब ब्रह्मण की देखरेख में काम करने का आदेश भी देता है!
धीरे धीरे समय बीतता है! गरीब ब्रह्मण अब गरीब नहीं रहता! समाज में उसने अपनी एक साफ़ छवि बना के राखी हुई थी! जो भी सेठ की दूकान में आता वही ब्रह्मण की प्रशंसा करके जाता!
समय बदलने के साथ साथ ब्रह्मण ने अपने विचार, अपनी आदत और अपना विनम्र स्वभाव नहीं बदला!
लेकिन दूकान से बाकी कर्मचारियों को उससे बड़ी ईष्या थी! वोह धीरे धीरे एक साजिश के तेहत सेठ का कान भरना शुरू कर देते है! और कहते है की वोह दूकान की तिजोरी से पैसे चोरी करके अपने संदूक में रखता है और हर दिन उसे देख के सोता है!
सेठ को भी अपने पिछले मुनीम और अपने बाकी कर्मचारियों की बातो पर विस्वास होने लगता है!
एक दिन सेठ ब्रह्मण को बुला कर संदूक के बारे में पुच लेता है! लेकिन ब्रह्मण उसे संदूक के बारे में कुछ भी कहने से साफ़ मना कर देता है!
इससे सेठ को और गुस्सा आता है और उस अपने कर्मचारियों के साथ उस ब्रह्मण के कमरे में जाके उसके संदूक का ताला जबरजस्ती तुड़वाता है! उस संदूक से एक पुराणी मैली पोशाक और एक फटा हुआ जूता मिलता है! पूछे जाने पर ब्रह्मण बताता है की यह वही पोशाक है जो वोह पहली बार पेहेन के सेठ के पास आया था! यह पोशाक मैंने इसीलिए संभल के रखी, क्युकी मुझे ज़िन्दगी भर कितना भी यश-अपयश मिले लेकिन मैं कभी भी अपने पुराने दिन ना भूल पाऊं! और इससे रख के मैं येही भी याद रखता हूँ की मेरी कल की ज़िन्दगी कैसी थी और सेठ जी के वजह से आज कैसी है, मैं उनका अहसान हमेशा याद रखु! येही वजह है की मैं हर दिन सोने से पहले इसे जरुर देखता था!
यह सब सुनके सेठ ने उसे गले से लगा लिया और कभी भी छोर्ड के ना जाने का वादा भी ले लिया!
और बाकी के कर्मचारियों को दुत्कारते हुए नौकरी से निकाल देता है! लेकिन वोह सभी उस ब्रह्मण का पैर पकड़ के रोने लगते है और ब्रह्मण सेठ जी से उनको दुबारा काम पर रख लेने के लिए निवेदन करता है जिसे वोह सेठ मान जाते है!
सदेश - दिन चाहे कितने भी बदले औकात हमेशा याद रखनी चाहिए! किसी से कोई भी वयवहार करते वक़्त अपने आपको उसकी जगह पर रखके एक बार जरुर सोचना चाहिए!
Hai Aankh Woh Jo Shyam Ka Darshan-Bhajan
है आँख वो जो श्याम का दर्शन किया करे,
है शीश जो प्रभु चरण में वंदन किया करे...
बेकार वो मुख है जो व्यर्थ बातों में,
मुख है वो जो हरिनाम का सुमिरण किया करे...
हीरे मोती से नहीं शोभा है हाथ की,
है हाथ जो भगवान् का पूजन किया करे...
मर के भी अमर नाम है उस जीव का जग में,
प्रभु प्रेम में बलिदान जो जीवन किया करे...
ऐसी लागी लगन, ऐसी लागी लगन...
लागी लागी रे लगन, लागी लागी रे लगन...
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन...
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी...
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन...
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी...
महलों में पली, बन कर जोगन चली...
मीरा रानी दीवानी कहाने लगी...
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन...
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी...
कोई रोके नहीं, कोई टोके नहीं...
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी...
कोई रोके नहीं, कोई टोके नहीं...
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी...
बैठी संतो के संग, रंगी मोहन के रंग...
मीरा प्रेमी प्रियतम को मनाने लगी...
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी...
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन...
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी...
महलों में पली, बन कर जोगन चली...
मीरा रानी दीवानी कहाने लगी...
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन...
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी...
राणा ने विष दिया, मानो अमृत पीया...
मीरा सागर में सरिता समाने लगी...
राणा ने विष दिया, मानो अमृत पीया...
मीरा सागर में सरिता समाने लगी...
दुःख लाखों सहे, मुख से गोविन्द कहे...
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी...
वो तो गली गली हरी गुण गाने लगी...
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन...
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी...
महलों में पली, बन कर जोगन चली...
मीरा रानी दीवानी कहाने लगी...
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन...
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी...
!! जय हो मीरा बाई सा की !!
!! जय हो मीरा बाई सा की !!
!! जय हो मीरा बाई सा की !!
Saturday, December 3, 2011
प्रारब्ध और भजन
वास्तविक महापुरुष भाग्य बताता नहीं, बनाता है।
प्रारब्ध और भजन
प्रारब्ध या भाग्य
वो कर्म हैं जिन्हें हमें भोगने के लिए इस जीवन में दिया गया है
भजन या भक्ति प्रारब्ध के वश में नहीं है
अलग डिपार्टमेंट है
R T O office में housetax जमा नहीं हो सकता
और नगर पालिका में रोड टैक्स जमा नहीं हो सकता
प्रारब्ध में भजन - भक्ति है ही
इसका प्रमाण हमारा यह मानव शरीर हमें मिलना है
यह भजन करने के लिए ही मिला है
भजन केवल और केवल करने से होगा
भजन करने से कृपा प्राप्त होगी नाकि कृपा से भजन होगा
अतः प्रारब्ध को अलग रखना है और भजन - भक्ति को अलग
भक्ति ;निरपेक्ष' तत्व है, यह भाग्य के वशीभूत या भाग्य की अपेक्षा नहीं रखता
प्रारब्ध और भजन
प्रारब्ध या भाग्य
वो कर्म हैं जिन्हें हमें भोगने के लिए इस जीवन में दिया गया है
भजन या भक्ति प्रारब्ध के वश में नहीं है
अलग डिपार्टमेंट है
R T O office में housetax जमा नहीं हो सकता
और नगर पालिका में रोड टैक्स जमा नहीं हो सकता
प्रारब्ध में भजन - भक्ति है ही
इसका प्रमाण हमारा यह मानव शरीर हमें मिलना है
यह भजन करने के लिए ही मिला है
भजन केवल और केवल करने से होगा
भजन करने से कृपा प्राप्त होगी नाकि कृपा से भजन होगा
अतः प्रारब्ध को अलग रखना है और भजन - भक्ति को अलग
भक्ति ;निरपेक्ष' तत्व है, यह भाग्य के वशीभूत या भाग्य की अपेक्षा नहीं रखता
Monday, October 31, 2011
||| यशोदा के लल्ला |||
माखन चुराने आते हो, दिल ही चुराए जाते हो
करते हो अठखेलियाँ नित नए स्वाँग रचाते हो
यशोदा के लल्ला क्यों नित नित हमें सताते हो
करते हो माखन चोरी फिरभी ब्रिज राज कहाते हो
किससे करें शिकायत सुनती नहीं तुम्हारी मैया
भोली भाली बातों से क्या क्या तुम पाठ पढ़ाते हो
मन बेचैन हो जाता है जब नज़रों से दूर हो जाते हो
नैनों में चमक आ जाती है जब गैया चराके आते हो
ये "इश्क" का कैसा मंज़र है, जादू है उस मधुर धुन में
हिरनियाँ भी दौड़ी आती है जब बंसी तुम बजाते हो
माखन चुराने आते हो, दिल ही चुराए जाते हो
करते हो अठखेलियाँ नित नए स्वाँग रचाते हो
यशोदा के लल्ला क्यों नित नित हमें सताते हो
करते हो माखन चोरी फिरभी ब्रिज राज कहाते हो
किससे करें शिकायत सुनती नहीं तुम्हारी मैया
भोली भाली बातों से क्या क्या तुम पाठ पढ़ाते हो
मन बेचैन हो जाता है जब नज़रों से दूर हो जाते हो
नैनों में चमक आ जाती है जब गैया चराके आते हो
ये "इश्क" का कैसा मंज़र है, जादू है उस मधुर धुन में
हिरनियाँ भी दौड़ी आती है जब बंसी तुम बजाते हो
ज्ञान का दीपक
काशी में गंगा के तट पर एक संत का आश्रम था। एक दिन उनके एक शिष्य ने पूछा, ‘गुरुवर, शिक्षा का निचोड़ क्या है?’ संत ने मुस्करा कर कहा, ‘एक दिन तुम खुद-ब-खुद जान जाओगे।’ बात आई और गई। कुछ समय बाद एक रात संत ने उस शिष्य से कहा, ‘वत्स, इस पुस्तक को मेरे कमरे में तख्त पर रख दो।’ शिष्य पुस्तक लेकर कमरे में गया लेकिन तत्काल लौट आया। वह डर से कांप रहा था। संत ने पूछा, ‘क्या हुआ? इतना डरे हुए क्यों हो?’ शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, कमरे में सांप है।’
संत ने कहा, ‘यह तुम्हारा भ्रम होगा। कमरे में सांप कहां से आएगा। तुम फिर जाओ और किसी मंत्र का जाप करना। सांप होगा तो भाग जाएगा।’ शिष्य दोबारा कमरे में गया। उसने मंत्र का जाप भी किया लेकिन सांप उसी स्थान पर था। वह डर कर फिर बाहर आ गया और संत से बोला, ‘सांप वहां से जा नहीं रहा है।’ संत ने कहा, ‘इस बार दीपक लेकर जाओ। सांप होगा तो दीपक के प्रकाश से भाग जाएगा।’
शिष्य इस बार दीपक लेकर गया तो देखा कि वहां सांप नहीं है। सांप की जगह एक रस्सी लटकी हुई थी। अंधकार के कारण उसे रस्सी का वह टुकड़ा सांप नजर आ रहा था। बाहर आकर शिष्य ने कहा, ‘गुरुवर, वहां सांप नहीं रस्सी का टुकड़ा है। अंधेरे में मैंने उसे सांप समझ लिया था।’ संत ने कहा, ‘वत्स, इसी को भ्रम कहते हैं। संसार गहन भ्रम जाल में जकड़ा हुआ है। ज्ञान के प्रकाश से ही इस भ्रम जाल को मिटाया जा सकता है लेकिन अज्ञानता के कारण हम बहुत सारे भ्रम जाल पाल लेते हैं और आंतरिक दीपक के अभाव में उसे दूर नहीं कर पाते। यह आंतरिक दीपक का प्रकाश संतों और ज्ञानियों के सत्संग से मिलता है। जब तक आंतरिक दीपक का प्रकाश प्रज्वलित नहीं होगा, लोगबाग भ्रमजाल से मुक्ति नहीं पा सकते।
Sunday, October 30, 2011
प्रीतम बोलो कब आवोगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
कब वीना की झंकारो पेय कोई अमर गीत बन छावोगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
यह प्यार भरा दिल रोता है थराते लम्बे साँसों में आसुँ की माल पिरोता है
अंधियारी सुनी कुंजों में रातों भर बात जू होता है हंसते इथ्रातें प्यार भरे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
सब प्यार जगत का झूठा है कुछ मान भाग्य अप ने पर था पर वो भी समझी फूटा है
ओह बिगड़ी बना ने वाले क्या तूं भी मुझ से रूठा है सब दूर करो झंझट मेरे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो कब आवोगे
भीगे भीगे नैना तेरी बात तका करते है सुनी सुनी रातों में हम तुम्हे पुकारा करते है
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
जोगन आँचल फेल्लां निकली जग लाज के बंधन तोड़ चली
कुल कान की आन मिटा निकली सारे श्रृंगार बखेर दिए
एक भगवा भेष बना निकली में तेरी मोहन तेरी हूँ
में तेरी प्यारे तेरी हूँ में जैसी हूँ अब तेरी हूँ में तेरी मोहन तेरी हूँ
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
जब शरद चंदर नभ मंडल को अप नि किरणों से धोता है
प्रेमी चकोर निज प्रीतम के दर्शन कर हर्षित होता है
इस शरद चांदनी रातों में यह संसार सुखियो हो सोता है
उस वक़्त मुझे नींद कहाँ दिल तड़फ तड़फ कर रोता है
श्री क्रिशन मुख चंदर बिना इस शरद चंदर सों काम नहीं
मेरे जीवन के सब दिन बीत चले पर आये मिले घन शाम नहीं
प्रीतम बोलो कब आओगे प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
कब वीना की झंकारो पेय कोई अमर गीत बन छावोगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
यह प्यार भरा दिल रोता है थराते लम्बे साँसों में आसुँ की माल पिरोता है
अंधियारी सुनी कुंजों में रातों भर बात जू होता है हंसते इथ्रातें प्यार भरे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
सब प्यार जगत का झूठा है कुछ मान भाग्य अप ने पर था पर वो भी समझी फूटा है
ओह बिगड़ी बना ने वाले क्या तूं भी मुझ से रूठा है सब दूर करो झंझट मेरे
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो कब आवोगे
भीगे भीगे नैना तेरी बात तका करते है सुनी सुनी रातों में हम तुम्हे पुकारा करते है
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
जोगन आँचल फेल्लां निकली जग लाज के बंधन तोड़ चली
कुल कान की आन मिटा निकली सारे श्रृंगार बखेर दिए
एक भगवा भेष बना निकली में तेरी मोहन तेरी हूँ
में तेरी प्यारे तेरी हूँ में जैसी हूँ अब तेरी हूँ में तेरी मोहन तेरी हूँ
प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
जब शरद चंदर नभ मंडल को अप नि किरणों से धोता है
प्रेमी चकोर निज प्रीतम के दर्शन कर हर्षित होता है
इस शरद चांदनी रातों में यह संसार सुखियो हो सोता है
उस वक़्त मुझे नींद कहाँ दिल तड़फ तड़फ कर रोता है
श्री क्रिशन मुख चंदर बिना इस शरद चंदर सों काम नहीं
मेरे जीवन के सब दिन बीत चले पर आये मिले घन शाम नहीं
प्रीतम बोलो कब आओगे प्रीतम बोलो कब आवोगे मोहन बोलो आओगे प्रीतम बोलो कब आओगे
Saturday, October 29, 2011
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